भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर / ज्ञानेन्द्रपति

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:46, 28 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञानेन्द्रपति |संग्रह= }} <Poem> दीवसर में जड़ी काँ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दीवसर में जड़ी
काँच की अलमारी मे
नेत्र-तल पर खड़ी
आनन्द का अयाचित वरदान देती
नटराज-प्रतिमा में नहीं
न भित्ति-कीलित कथकली के मुखौटे में
घर वहाँ नहीं बसता

घर झाँकता है, वहाँ देखो
कूलर-पदतल में
अचीन्हे-से रखे
धूलिधूसर उस अजीबोग़रीब- अजीब ग़रीब चीज़ में
जो दरअस्ल एक लैम्पशेड है
कूड़ेदान में जाने से पहले ठिठका हुआ
एक अथाह कूड़ादान जिसके पेंदे में कोई छेद नहीं
पर जहाँ से
खुलती है दूसरी दुनिया में एक सुरंग
वह दूसरी तरफ़ की दुनिया है
जिसके तट पर कबाड़ियो की उठी हुई हड़ीली बाँहें दिखती हैं
और आगे कुछ नहीं और
बस अनस्तित्व का समुद्र
आकर्षक न होते हुए भी आकर्षक
जिसकी खींचती महाबाँहों में
जाने नहीं देना चाहता है घर
न जाने कितने बल्बों से तपे उस बुझे लैम्पशेड को