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इन दबी यादगारों से / विजयदेव नारायण साही
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इन दबी हुई यादगारों से ख़ुशबू आती है
और मैं पागल हो जाता हूँ
जैसे महामारी डसा चूहा
बिल से निकल कर खुले में नाचता है
फिर दम तोड़ देता है।
न जाने कितनी बार
मैं नाच-नाच कर
दम तोड़ चुका हूँ
और लोग सड़क पर पड़ी मेरी लाश से
कतरा कर चले गए हैं।