भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पद / गोरखनाथ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: गोरखनाथ

~*~*~*~*~*~*~*~


रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला । < br > मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।। < br > अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली । < br > जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां । < br > तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।। < br > काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा । < br > कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।। < br > सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा । < br > सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा । < br > कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ । < br > गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ ।