भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छाता / प्रेमरंजन अनिमेष
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:18, 8 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमरंजन अनिमेष |संग्रह=मिट्टी के फल / प्रेमरं...)
जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते
हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करूंगा
और लूँगा एक छाता
इस शहर के लोगों के पास जो छाता है
उसमें कोई एक ही आता है
इसलिए
सोचता हूँ
मैं लूँगा
तो लूँगा आसमान
कि जिसमें सब आ जाएँ
और बाहर खड़ा भीगता रहे
बस मेरा अकेलापन
बराबर लगता है
छाते
रिश्ते-नाते हैं
बरसात में काम आते हैं
और अक्सर
छूट जाते हैं !