भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैश्णव जन तो तेने कहिये जे / भजन

Kavita Kosh से
74.215.56.221 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:58, 10 जनवरी 2009 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार:                  

वैश्णव जन तो तेने कहिये जे
पीर परायी जाणे रे

पर- दुख्खे उपकार करे तोये
मन अभिमान ना आणे रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥

सकळ लोक मान सहुने वंदे
नींदा न करे केनी रे
वाच काछ मन निश्चळ राखे
धन- धन जननी तेनी रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥

सम- द्रिष्टी ने तृष्णा त्यागी
पर- स्त्री जेने मात रे
जिह्वा थकी असत्य ना बोले
पर- धन नव झाली हाथ रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥

मोह- माया व्यापे नही जेने
द्रिढ़ वैराग्य जेना मन मा रे
राम नाम शुँ ताळी लागी
सकळ तिरथ तेना तन मा रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥

वण- लोभी ने कपट- रहित छे
काम- क्रोध निवार्या रे
भणे नरसैय्यो तेनुँ दर्शन कर्ताँ
कुळ एकोतेर तारया रे
वैश्णव जन तो तेने कहिये जे ॥