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वो कभी धूप कभी छाँव लगे / कैफ़ी आज़मी

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वो कभी धूप कभी छाँव लगे
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे

किसी पीपल के नीचे जा बैठे
अब भी अपना जो दांव लगे

एक रोटी के ता'अक्कुब में चला हूँ इतना
की मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे

जैसे देखात में लू लगते है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे