भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक में दो / गुलज़ार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:44, 13 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलज़ार }} category: गीत <poem> एक शरीर में कितने दो हैं, ग...)
एक शरीर में कितने दो हैं,
गिन कर देखो जितने दो हैं।
देखने वाली आँखें दो हैं,
उनके ऊपर भवें भी दो हैं,
सूँघते हैं ख़ुश्बू को जिससे
नाक एक है, नथुने दो हैं।
भाषाएँ हैं सैकड़ों लेकिन,
बोलने वाले होंठ तो दो हैं,
लाखों आवाज़ें सुनते हैं,
सुनने वाले कान तो दो हैं।
कान भी दो, होंठ भी दो हैं,
दाएँ, बाएँ, कन्धे दो हैं,
दो बाहें, दो कोहनियाँ उनकी,
हाथ भी दो, अँगूठे दो हैं।