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नासूर / रश्मि रमानी

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साफ़ हो गए वे तमाम कपड़े
जो ख़राब हो जाते थे कभी-कभी
अलग-अलग दाग-धब्बों से

मिट गए वे तमाम निशान
जिस्म पर बन जाते हैं जो
अक्सर ज़ख़्म हो जाने के बाद
पर
नहीं भर सका वो नासूर
जो मुझे मिला किसी सज़ा की तरह
जिसका कसूर मैंने किया ही नहीं था

गुज़रा वक़्त
आज भी बार-बार याद आता है
अथाह कोलाहल के बीच
जैसे कोई ख़ामोश लम्हा
राख में दबा अंगारा
वीराने में खिला कोई अनजान फूल।