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वही सब वही / ध्रुव शुक्ल

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मैं अपनी देह से ख़ुश होता हूँ
देह से ही जानकर
उसके भीतर उपजते सत्य से
आँखॊं में आकार लेता है सत्य
पूरी भर-भर जाती हैं आँखें सत्य से
मैं भूल-भूल जाता हूँ
इस चित्र के बाद बाक़ी सब क्या है
देह के हर छोर पर
ख़ून से भी तेज़ धक्के मारकर
पा लेना चाहता है वही सब
वही जो उसमें समाया हुआ है
वह समाता ही चला जाता है देह में
थर-थर काँपती सत्य के विस्तार में
नहीं समा पती मेरी देह
कहीं मृत्यु की तो नहीं होती जा रही है