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प्रभु तुम द्वन्द्व समास / ध्रुव शुक्ल

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कोई कब तक
नदी किनारे
बैठा रहे उदास
प्रभु तुम द्वन्द्व समास

धरती सबकी माँ है
अन्यायी भी बो देते हैं
अन्न नियम से
बड़े प्रेम से उग आता है

रोज़-रोज़ ये थोड़ा-थोड़ा
मेरे भीतर क्या मरता है?
सारा सत्य लुटाकर कोई
अपना घर कैसे भरता है !

मरी हुई मछली की पीड़ा
वहीं छोड़कर सागर-तट पर
सब मछुवारे रोज़ चले जाते हैं

कवितामेरी करनी है
मेरी नैया भी तो पार उतरनी है
दे न पाया आज तक मैं
दुख की उपमा
मुझे करना क्षमा