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पवाड़ा / तुलसी रमण
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आओ चले उस गाँव
जहाँ झड़ते अनायास
पके फ़ल - डाल-डाल छाँव- छाँव
चलो जीएं उस पेड़ की छाँव
जिसका वह एक फल
‘झाँणों- मनसा’ ने
चखा था आधा-अधा
रह गए थे देखते
छूट गया था बीज
उसी पेड़ की छाँव
बीज -दर –बीज
उगते रहे किनते ही शाखी
झडते रहे कितने फ़ल
स्तब्ध रहा पहाड़ों का
परस्पर टकराना
थक गया
गाँव से गाँव सुलगना
गूँजता रहा‘पवाड़ा’हर घाटी,गाँव-गाँव
काया हो जाओ
तुम उस फ़ल की
बीज हो जाता हूँ मैं
और उगते रहें बार-बार
घाटी-घाटी गाँव- गाँव