भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पवाड़ा / तुलसी रमण
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:34, 15 जनवरी 2009 का अवतरण
आओ चले उस गाँव
जहाँ झड़ते अनायास
पके फल - डाल-डाल छाँव- छाँव
चलो जीयें उस पेड़ की छाँव
जिसका वह एक फल
‘झाँणों- मनसा’ ने
चखा था आधा-आधा
रह गए थे देखते
छूट गया था बीज
उसी पेड़ की छाँव
बीज -दर –बीज
उगते रहे किनते ही शाखी
झड़ते रहे कितने फल
स्तब्ध रहा पहाड़ों का
परस्पर टकराना
थक गया
गाँव से गाँव सुलगना
गूँजता रहा ‘पवाड़ा’ हर घाटी,गाँव-गाँव
काया हो जाओ
तुम उस फल की
बीज हो जाता हूँ मैं
और उगते रहें बार-बार
घाटी-घाटी गाँव-गाँव