रात के एकांत में
भूल जाता हूं
कि कमरे के बाहर है एक दुनिया
और कमरा इसी दुनिया में है
दिन भर चाबुक खाए घोड़े सा
शाम ढले हैरान हूँ कि
अभी तक हूँ खाल सहित
मेरी टापों के निशान गवाह हैं
गाँवों-कस्बों-शहरों की
कच्ची-पक्की सड़कों पर
सपनों के सजे रथ
मैं ही खींचता रहा हूँ
पीठ पर लदा है समय
हर क्षण भारी और असहनीय
सुनता हूँ
देवता भी लालायित रहते हैं
धरती पर आने को
तो बलवती हो जाती है
जीने की चाह
खुरों से टपकता लहू
कंधों की उधड़ी खाल को
अनदेखा कर
ढोता हूँ निरंतर सपने
होंगे कभी तो सच
समय होगा मुट्ठी में
गाँवों-कस्बों-शहरों की सड़कों पर
कभी तो होगा साम्राज्य
चाबुक खाने वालों का
खुश हूँ
मेरी इस हिनहिनाहट में
बहुत लोग शामिल हैं।