पेड़ चुप, पत्तियाँ चुप हैं
वक़्त मुँह पर रखे उँगली बोलता है
कौन ठिठकी-सी हवा में
दर्द पिछले घोलता है
है सवेरा तो नया पर
बात कुछ लगती पुरानी
मंत्रीमंडल भी वही है
वही राजा, वही रानी
शहर क़स्बों के कथानक
राज करती राजधानी
पेड़ चुप, पत्तियाँ चुप हैं
लहर पर ठिठके हुए जलपोत-सा
मन डोलता है
आँख का पानी बहुत-कुछ मोलता है
जो कभी इतिहास था
अब गर्द में डूबी हवेली
घुटे टूटी बावड़ी में
पानियों वाली पहेली
रैम्प पर जलवे दिखाती
महारानी की सहेली
पेड़ चुप, पत्तियाँ चुप हैं
बन्द दरवाज़े न कोई खोलता है
इक विदूषक शब्द के बटखरे लेकर
अर्थ के सच तोलता है।