Last modified on 20 जनवरी 2009, at 22:08

टीले पर / मोहन साहिल

प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:08, 20 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन साहिल |संग्रह=एक दिन टूट जाएगा पहाड़ / मोहन ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अकेले सुनसान जंगल में जब समय
एक ऊंचे टीले पर खड़ा कर हमें
हो जाता है खिलाफ
हम खिसियाए से झाँकने लगते हैं बगलें
खोजते हैं निकल भागने की तरकीबें
गिरे बिना टीले से उतरना संभव नहीं
गिरने के बाद जीवित रहना कठिन
उहापोह में घिर आती है रात
कितना कठिन है पंजों के बल जीना
सपने और कल्पना तो हरगिज़ नहीं
जंगली जानवरों के सिवा कोई नहीं पास
घर को याद रखने की क्या तुक है
खड़े रहना होगा सुबह तक यूँ ही
चौकन्ना हो काटनी होगी रात
हल्की सी डगमगाहट
पहुँचा सकती है खाई के नुकीले पत्थरों पर


तब पत्नी की प्रतीक्षा
और बच्चों की आस का क्या होगा
पूर्व की ओर मुँह किए
सुबह की प्रतीक्षा में हैं हम
जंगल के खौफनाक माहौल में।