भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खारा-सिंधु मीठा-नीर / ओमप्रकाश सारस्वत

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:15, 24 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत |संग्रह=दिन गुलाब होने दो / ओमप...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


महासिन्धु तीर हो गया
प्रभंजन समीर हो गया
हौसले को आसमां हुए
आत्मा अमीर हो गया

दृष्टियां जो फलक तक उठीं
सारे लोक जगमगा उठे
सारे मंद सूर्य बल उठे
सार पुण्य खिलखिला उठे
सिद्धियां प्रसिद्धि पा गईं
साधु मन, कबीर हो गया

एक मन जो राग में फंसा
एक मन तो त्याग पर हंसा
 एक मन जो रोग-शोक था
एक मन जो हंस-कोक था
एक मन जो अहं में धंसा
वह प्रार्थना-पुनीत हो गया

सब द्वन्द्व की लड़ाइयां मिटीं
सब छंद की लड़ाइयां घटीं
शब्द सारे झट सधे कमान पर
सब अर्थ थी सच्चाइयां जुटीं
तीव्र बुद्धि ने तजे विरोध सब
खारा-सिंधु मीठा-नीर हो गया।