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खारा-सिंधु मीठा-नीर / ओमप्रकाश सारस्वत
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महासिन्धु तीर हो गया
प्रभंजन समीर हो गया
हौसले को आसमां हुए
आत्मा अमीर हो गया
दृष्टियां जो फलक तक उठीं
सारे लोक जगमगा उठे
सारे मंद सूर्य बल उठे
सार पुण्य खिलखिला उठे
सिद्धियां प्रसिद्धि पा गईं
साधु मन, कबीर हो गया
एक मन जो राग में फंसा
एक मन तो त्याग पर हंसा
एक मन जो रोग-शोक था
एक मन जो हंस-कोक था
एक मन जो अहं में धंसा
वह प्रार्थना-पुनीत हो गया
सब द्वन्द्व की लड़ाइयां मिटीं
सब छंद की लड़ाइयां घटीं
शब्द सारे झट सधे कमान पर
सब अर्थ थी सच्चाइयां जुटीं
तीव्र बुद्धि ने तजे विरोध सब
खारा-सिंधु मीठा-नीर हो गया।