भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पीपल / सरोज परमार
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:17, 28 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...)
१.
मैं किसी ढहते क़िले की फ़सील
तुम किसी दरार से
झाँकने की कोशिश में पीपल
तुम्हारी नन्हीं-सी छाया
उम्र गुज़ारने को काफ़ी है.
२.
बिजूका-से खड़े होने पर
कोई तुम्हें पीपल नहीं कहेगा
जंगल का हिस्सा होने हेतु
जंगल की सीरत ज़रूरी है
तुम्हारा पीपल बनना ज़रूरी है.