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धूप में बैठी औरत / सरोज परमार

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धूप में बैठी औरत
जुराब बुन रही है
मन ही मन उसके पैरों का माओ गुन रही है
चूल्हे पर उफनी दाल
सेहन में रम्भाए गैया
घड़ौंची के पानी में
बीठी सोन-चिरैया
मुँडेर पर बोले कागा
राम जी आवे मोर भैया
कंगन चूनर लावे
जले पड़ोस की यांया.
एड़ी के फन्दे घटा-बढ़ा
कुछ तज़किरे चुन रही है
धूप में बैठी औरत
जुराब बुन रही है.