भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उसका दु:ख / सरोज परमार
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:01, 29 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...)
बच्चे की जलती बुझती आँखों में
नहीं हैं सपने
देर से लौटती थकी-माँदी
माँ का इन्तज़ार है.
उसे पूछने हैं कई सवाल
कहनी हैं कई छिटपुट बातें.
वो भी जानने लगा है
आँखें चुराकर घुस जाएगी चौके में माँ
वह निहारता रहेगा उसकी बाट
तब तक जब तक
आँखें भारी न हो जाएँ.
बच्चा नहीं कह पाता वो सब
जो सिर्फ़ उसे माँ से कहना है.
माँ समझती है दु:ख उसका
पर उसका दु:ख महीने के राशन
से उसे हल्का लगता है.