Last modified on 30 जनवरी 2009, at 08:20

इस ख़ौफ़नाक दौर में / सरोज परमार

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:20, 30 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

 
अक्सर लोग फूलों का गीत गुनगुनाते
बँट जाते हैं पैने ख़ंजर
थपथपाते हैं मेज़ें
पीटते हैं थालियाँ
खीसें निपोरते
लगाते हैं कहीं सेंध भी.
ब्रीफ़केसों में बन्द
अस्मत, किस्मत, ताक़त
दलालों के रगड़े में
पूरा समाज.
बातें हैं समझौते की
फ़स्लें उगाते लाशों की
मिसाइल की नोक पर
बाँध इन्सानियत को
उगलवाते हैं अमन-चैन,सुकून
इस दुरभिसन्धियों के ख़ौफ़नाक दौर में
कहाँ है मुकम्मल सुख?
तुम्ही बताओ किन भरोसेमन्द हाथों में
सौंप दूँ अपनी नन्हीं बुलबुल.