(शलभ श्रीराम सिंह के वास्ते)
हम वाहन पर सवार थे
चालक से कह दिया गया था कि
हमारा कोई गंतव्य तय नहीं
और उसे नहीं होना चाहिए कोई उज्र
कि वाहन लगातार दौड़ा ही जा रहा
चालक भी हुआ उत्साहित कि
हुए मयस्सर अर्से बाद ऎसे बेवकूफ़
हम लगातार गति में रहे
कि ख़ास घर को देख मेरा सहयात्री
वाहन रुकवात
उसे लगता कि वह भटक गया और
दोबारा बढ़ते हम गली-कूचों की जानिब
चालक जब थककर होता निढाल
हम उतरते अदब से पैसे चुकाते
उतने ही अदब से पेश करते उसे एक सिगरेट
पूछते उसका नाम पता और वल्दियत
वह करता देर तक हमारा शुक्रिया अदा
दोस्त को अपने गंतव्य का पता था
लेकिन जहाँ जाना था वहाँ
जाना ही नहीं चाहता था वह
लेकिन जाने के नाम पर भटकता ही रहा डेढ़ घंटे तक
शायद यही ठहरी
दोस्त की कविता की सिफ़त
सन्दर्भ :
शलभ श्रीराम सिंह : दिवंगत हिन्दी कवि और नवगीत काव्यधारा के प्रमुख कवियों में से एक युयुत्सावादी कवि।