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न जाने कौन सी भाषा से / ब्रज श्रीवास्तव
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यह कथित विशाल अस्तित्व
हुआ धराशायी
किसी की चाहत की आंधी में
हर समय हवा की तरह उड़ता मन
दिन-रात ताल में चलते क़दम
हर कोशिश में हमराह होती आँखें
सब हार मन गए हैं
सामने आता हर दृश्य स्तब्ध हुआ
साँस से साँस की बातचीत तक सुनाई देने लग गई
एक ही एक बिम्ब दिखाई दे रहा है सब तरफ़
ओस की बूंदों से सजा
बुदबुदाना भी भूल गए हैं होंठ
न जाने कौन सी भाषा से
पहचाना जा रहा होगा मुझे इन दिनों।