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गाँव में एक मौत / केशव

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लगभग पूरा गाँव
उसकी मौत पर
अपने डर की गठरी ख़ोलकर
बिछा गया था
उस पाँच फुट ज़मीन के टुकड़े पर

घरों की देहरी पर
कील ठोंककर
महफ़ूज़ कर लिया था
सबने ख़ुद को
बूँद भर
गंगा-जल के कवच में
फिर आती है एक बुढ़िया
गाँव के अंतिम छोर से
इसीलिए शायद आखिरी
और दाँतों तले
दबाये फड़फड़ाती चीख़ को
ताकती है
झरोखे से भीतर आने के लिए
व्याकुल
पेड़
    पहाड़
         आसमान को
देखती है
पेड़ पर बैठी
चिड़िया की चोंच में
देर से अटके दाने को

तभी उसकी चीख
बदल जाती है एक प्रार्थना में
‘आह! पंछी तक व्याकुल हैं

और
इस डर को
गठरी में बाँध उतर जाती है
घर की पगडंडी पर
</[Poem>