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क़तरा-क़तरा / केशव
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मैं झुक रहा हूँ
तुम्हारी और
जैसे झील की सतह पर
झुक आयी हो किनारे खड़े
पेड़ की कोई शाख
तुम्हारे होठों की
छलछलाती नदी से
पीना चाहता हूँ
एक बूँद
ताकि मैं भी देख सकूँ
इस नदी को
अपने भीतर उफनते
ओ मीता
नदी
सूख रही है
कतरा
क
त
रा
क्या पता
वक्त कब हमें बदल दे
दो सूख़े किनारों में
इसका रुख़
बीतते हुए बसंत की
जड़ों की और मोड़ दो