भरी दोपहरी में
नींद को कचोटती है
कव्वे की काँय-काँय
पाँवों के नीचे दबी
सूखी पत्तियों की चरमराहट
दूर जंगल में गूँजता है
खच्चरों के गले की घंटियों का स्वर
संध्या होते ही
झिंगुरों का एक तार स्वर
रात ढलते बहती नदी का बढ़ता शोर
चूल्हे पर खौलता तेल
कच्चे सब कुछ को पका देने की जिद-सी करता
दुःस्वप्न में आधी रात
डर से नींद उचटे
और सुनाई पड़े
चूड़ियों के खनकने का धीमा स्वर
कान पर हाथ रोक न पाए
बिजली के कड़कते स्वर
झंझा के बाद
खेत के कोने में नाचते मोरों का
घाटी को भरता स्वर
दबी रहे हमेशा
और फिर साफ सुनाई पड़े
अपने ही दिल की धड़कन
घर में कोहराम सा मचाती
स्लेट की छत पर ओलों की उछलकूद
घर-भर से प्रश्न पूछती फिरती है
दरवाजों के चूलों की चरमराहट
सुबह की मीठी नींद में
परियों के लोक से आते
माँ के भजन के स्वर
घाटी की शांत हवा को
पँखों से पीटता हुआ
निकल जाता है हेलिकॉप्टर
गिरते पानी का शोर
और घूमते घराट पर
लकड़ी की चिड़िया की
आटे सनी टक...टक...टक...
चीड़ों के केशों को संवारती
हवा का वह मधुर स्वर
ओ मेरे टूटे बिखरे स्वर
आए हो तो मेरे कानों में घुल जाओ
मुझे वरो
मेरे सीने में साँस बनकर रहो।