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माँ / छगनलाल सोनी
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माँ
तुम्हें पढ़कर
तुम्हारी उँगली की धर कलम
गढ़ना चाहता हूँ
तुम सी ही कोई कृति
तुम्हारे हृदय के विराट विस्तार में
पसरकर सोचता हूँ मैं
और खो जाता हूँ कल्पना लोक में
फिर भी सम्भव नहीं तुम्हें रचना
शब्दों का आकाश
छोटा पड़ जाता है हर बार
तुम्हारी माप से
माँ
तुम धरती हो।