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वश के बाहर / दिविक रमेश
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लो पुल डगमगाया,
सम्भलो ।
कम से कम पुल तो था
भले ही सन्देहों का ।
चालाकी और सजगता ही तो ज़्यादा थी
हमारे बीच,
सतर्क रहने का प्रयास
फिर भी एक ऊँचाई ज़रूर थी,
जहाँ सम्भव थी भाषा ।
लेकिन कितनी साफ़ है अब
दरिया की भयंकर चौड़ाई ।
सच के साथ
हम ख़ुद कहाँ जुड़ते हैं
कहाँ टूटते हैं खु़द के चाहने से ।