भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परिन्दे कम होते जा रहे हैं / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:50, 7 फ़रवरी 2009 का अवतरण
परिन्दे कम होते जा रहे हैं
शहरों में तो पहले नहीं थे
अब गाँवों की यह हालत है कि
जो परिन्दे महीने-भर पहले
पेड़ों पर दिखाई देते थे
वे अब स्वप्न में भी नहीं दिखाई देते
सारे पेड़ जंगल झुरमुट
उजड़ते जा रहे हैं
कहाँ रहेंगे परिन्दे
शिकारी के लिए और भी
सुविधा है
वे विरल जंगलों में परिन्दों को
खोज लेते हैं
घोंसले बनने की परिस्थितियाँ
नहीं हैं आसपास
परिन्दे सघन जंगलों की ओर
उड़ते जा रहे हैं
खोज रहे हैं घने-घने पेड़
वैसे आदमी भी कम होते
जा रहे हैं गाँवों में
वे उजड़ते जा रहे हैं
कलकत्ता-बम्बई-दिल्ली
अपने चारों की तलाश में
गाँवों में उनकी स्त्रियाँ हैं
जिनके घोंसले ख़तरे में हैं