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उम्मीदों के भंडार / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

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जिन घरों के बच्चे
अक्सर पानी पी कर
भूख को धता बताते हैं

जिन घरों के बच्चे
ज़िद नहीं करते
भीतर-ही-भीतर मचलते हैं

जिन घरों के बच्चे
बापू की दुर्लभ मुस्कान
माँ की हँसी से
मेलों-खिलौनों की तरह बहलते हैं

रेत के नहीं बनाते घर
हर बरसात के बाद
दरकी दीवारों के लिए
मिट्टी को चिकना बनाते हैं
पाँव के तले
हू-ब-हू महसूस करते हैं धरती

जिन घरों के बच्चे
बचपन के बीचों- बीच
बचपनहीन होते हैं
वे घर उम्मीदों के भण्डार हैं
उन घरों के बच्चे
बेहतर दुनिया के
विश्वस्त आधार हैं