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बसन्त / केदारनाथ सिंह
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और बसन्त फिर आ रहा है
शाकुन्तला का एक पन्ना
मेरी अलमारी से निकलकर
हवा में फरफरा रहा है
फरफरा रहा है कि मैं उठूँ
और आस-पास फैली हुई चीज़ों के कानों में
कह दूँ 'ना'
एक दृढ़
और छोटी-सी 'ना'
जो सारी आवाज़ों के विरुद्ध
मेरी छाती में सुरक्षित है
मैं उठता हूँ
दरवाज़े तक जाता हूँ
शहर को देखता हूँ
हिलाता हूँ हाथ
और ज़ोर से चिल्लाता हूँ –
ना...ना...ना
मैं हैरान हूँ
मैंने कितने बरस गँवा दिये
पटरी से चलते हुए
और दुनिया से कहते हुए
हाँ हाँ हाँ...
(1964)