उठो प्रिया, उठो
चांद उग आया है
दरख़्तों पर टपक रहा है अमृत
किरनों की एक शहतीर तन गयी है आसमान तक
उठो एक दरिया हिलोरें लेता
चला आया है तुम्हारी नींद में
कितनी सुंदर लग रही है
इसकी लहरों पर
डोलते चांद की छाया
उठो ख़्वाब से
उठो नींद से
उठो हंसी और आंसू के बीच से
यह चांद की रात है
यह ख़यालों के तामीर की रात
वीरान रास्तों पर हवा का झोंका
शाखों को डुला रहा है
उठो प्रिया, उठो
दुख की सेज से उठो
लहू तो आयेगा तलवों में
पर तुमको पांवों-पांवों चलना ही होगा
तुम्हें बहुत पहले
शायद एक सपने में देखा था
बहुत खुश, बहुत हैरान
फ़िर शायद किसी मेले में, किसी वीरान नगर,
किसी खंडहर, किसी घाट, किसी पगडंडी पर
या शायद कहीं किसी घर में
वनलता सेन ! तुम पता नहीं
किस हाट-बाज़ार में थीं
पता नहीं किसने तुमसे कहा था
लाल आंचल का परचम बना लेने को
पता नहीं कहां तुम
अग्नि के काष्ठ बीनती रहीं ....
पता नहीं कितने कितने राक्षस
किन जादू-महलों में
सात तहखानों में तुम्हें कैद किये रहे
पता नहीं कितने गर्वित राजकुमार
बाजू और तलवार के जोर पर
तुम्हारी काया की तलाश में भटकते रहे
पता नहीं कितने गड़रिये-चरवाहे
अपने गीतों में तुम्हें गाते
घाटी में मर-खप गये
सदियों तक तुम क्या करतीं रहीं
ओ हमारी मित्र-बांधवी ?
कैसे काटी दुख की यह लंबी रात ?
नील से आमेजन तक
और गंगा से दजला तक
ये जो शहर खड़े हैं
इनकी किन गलियों में
तुम्हारे पांवों के निशान हैं ?
किन हवाओं में तुम्हारे पैरहन की खुशबू
और तुम्हारे गीतों की गूंज है ?
सह्याद्रि और विंध्य के पर्वत-पथों पर
आल्पस और हिंद्कुश की घाटियों में
तुम्हारी लोरियां, तुम्हारी सिसकियां,
तुम्हारी कराहें, तुम्हारी मनौतियां,
तुम्हारी प्रार्थनायें
क्या अब भी सुनायी देती हैं ?
ओ नीपर-कन्या
क्या जर्मन बूटों तले कुचला तुम्हारा चेहरा
फिर कभी हंस सका ?
यांग्सी के जल में
तुमने अपनी हंसी की परछायीं देखी क्या ?
मानसरोवर पर जो हंस मोती चुगने आते थे
क्या वे तुम्हारे ही आंसू थे ?
कण्व के आश्रम से टेम्स के तट तक
ये किन पांवों के निशान हैं ?
तुम्हारा बेटा किस जंगल में पल रहा है ?
हिमालय के भव्य शिखरों शुरु हो कर
उत्तर के मैदानों को लांघती
गंगा जिन जिन गांवों से गुज़री है
वहां वहां ठहर कर
ओ ग्राम-पुत्री ! उसने सुने हैं तुम्हारे गीत
तुम्हारा दर्द, तुम्हारी मिन्नतें
उठो, ओ धरती की बेटी
उठो साहिर की नज़्मों से
फ़ैज के ख़्वाबों से
नहीं अन्ना, नहीं उन पटरियों की ओर मत जाओ
लौट आओ, देखो
ज़िन्दगी को तुम्हारी हंसी और तुम्हारा गीत चाहिये
लौट आओ, देखो
यह बुर्ज़्वा परजीवियों का संसार मर रहा है अपनी मौत
पर जंग खायी इन बेड़ियों की भूलभुलैया
अब भी ताकतवर है
बिएत्रिस लौटो स्वर्ग से
मदद करो इन्हें काटने में
अब भी बहुत बाकी है दर्द की यह रात
मत जाओ किसी के सपने में
उस जादुई फूल का मोह छोड़ो
वहां सिर्फ ज़ंजीरें हैं और कारागार
लौट आओ श्रद्धा
तसलीमा की आवाज़ बन कर
क़ुर्तुल के लफ़्ज़ और मारीना की कविता बन कर
लौट आओ
दुनिया के तमाम मायादेशों को ठुकरा कर
गंगा और नील के उर्वर तटों पर
जहां सूर्योदय हो रहा है
जहां धरती के बेटे
सहस्राब्दियों दूर के एक स्वप्न की तामीर में जुटे हैं
लौट आओ अजंता की गुफाओं से
रोम और वेनिस के रंगीन फ़व्वारों वाले चौराहों से
माइकलेंजलो के प्रस्तर-स्वप्न और
ब्राउनिंग की कविता से
शरत के उपन्यासों तोलस्तोय के ग्रंथों से
जातक, श्रुति, आख्यान और उपनिषद के अक्षरों से आओ
पद्मा की लहरों को तुम्हारे पांवों का स्पर्श चाहिये
भारत के दक्षिण का यह विशाल समुद्र
ओ धरती की पुत्री !
लहरों की विराट कल्पना में तुम्हारा आवाहन कर रहा है
जैसे गरजते हुए इस विशाल सागर के तट पर
ज़माने पहले
पराजय और संशय की गहन रात में
राम ने शक्ति का आराधन किया था
मालव-निर्झर की झर-झर कंचन रेखा में
तुम्हीं थीं
साहस की रश्मि शलाका बन उतरीं
गंगा के, रेवा-क्षिप्रा के
कृष्णा के कूलों के उठान पर
भव्य गूंजता हुआ गान
गहन सौन्दर्य-स्वप्न माया
गंभीरमुखी !
हां, तुम्हीं थीं
उस चेतस कवि ने
उस निर्झर की झर झर कंचन-रेखा सुनील में हाथ डुबो
जिसकी तुमको उपमा दी थी अकस्मात
तुम्हीं थीं
जीवन की प्रदीर्घ मीठी मानवी छाया
जिस पर मीठे समीर-सा लहराया था
मिट्टी की आत्मा का गहरा आशीर्वाद
उठो प्रिया, उठो
आज तुम्हें प्रेम का एक नया गीत लिखना है
सौंदर्य की माया नहीं
तुम्हें सौंदर्य होना है
ओ क्षिप्रा की स्वप्न !
सचमुच एक नया युग उतर रहा है
कह रहे हैं यह
तुम्हारे ही तो पदचाप .....
मुक्तिबोध की एक लंबी कविता है - ’मालव निर्झर की झर-झर कंचन रेखा’ . इस कविता का आंतरिक सौंदर्य अप्रतिम है . कवि ने किसी बहुत दूर आने वाले समय में एक प्रेम-संबंध का स्वप्न-चित्र इसमें रचा है . यह भविष्य की स्त्री आंतरिक सौंदर्य और व्यक्तित्व की पूर्णता से ओज-दीप्त हो उठी है . मेरी यह कविता जब अंत की ओर पहुंची तो उसका कथ्य मुक्तिबोध की इस कविता के विचारों में घुलने लगा. अंतिम आठ-दस पंक्तियों में मुक्तिबोध की नायिका की स्मृतियां हैं.