भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर / सौरभ

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:22, 28 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सौरभ |संग्रह=कभी तो खुलेगा / सौरभ }} <Poem> '''एक''' एक दि...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक
एक दिन यूँ ही निकला घर से
बनाने इक अपना घर
घर होते हुए भी अपना घर
बनाने की तमन्ना हम सभी में है
इक दिन यूँ ही निकला घर से
बनाने अपना घर
चाहता था उसमें मैं
लाखों चाँद और सितारे
चाहता था उसमें खेलें
चुन्नू, मुन्नू और टुन्नू
चाहता था उसके बाग में
चहचहाएँ पक्षी
एक ही साथ पानी पिएँ
शेर और बकरी
तब अचानक मैंने पाया, कि यह दुनियाँ भी
इक घर ही तो है मेरे लिए


दो

सभी चाहते हैं कि घर हो
कोलाहल से रहित
पर मनुष्य का दिमाग कभी शान्त नहीं होता।