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तुम / सौरभ

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एक
तुम रात के अँधेरे में
सितारों की रोशनी बन चमकते हो
सूर्य की रोशनी बन करते हो तरोताज़ा
अन्धेरा बन राहत देते हो
थके तन को मन को।

तुम
बन के आते हो पक्षियों का मधुर संगीत
फूलों की सुगन्ध बन महकते हो
गर्मी में ठण्डी बयार बन देते हो राहत
सर्दी में बनते हो आग का ताप
पर प्रभु
तुम मुझे सब से अच्छे तब लगते हो
जब कविता, बन आते हो मेरे पास।

दो
कविता रच कर नवजीवन पाता हूँ
कविता में बह कर मेरा अन्तर्मन
होता है फिर से ताज़ा
कुछ नया रचने के लिए
पर प्रभु! जब तक तेरा स्वाद नहीं
मिल जाता मेरी कविता में
वह पूरी होकर भी अधूरी रहती है।