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बेजूबां हैं क्यूँ लोग यहाँ...... / हरकीरत हकीर
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प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:51, 1 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरकीरत हकीर }} <Poem> फिजां में उठ रही लपट सी क्यों ...)
फिजां में उठ रही लपट सी क्यों है
ये भगदड़ सी क्यों शहर में मची है
ये ताज क्यूँ जला आज आग में
यहाँ इंसानियत क्यों दिलों में मरी है.....
ये किसकी साजि़श है जो सड़कों पे
खामोशी सी यूँ , पसरी पडी़ है
लगी हैं क्यूँ , कतारों में लाशें
ये खूँ की होली फिर क्यों जली है.....
ये शहर, ये गलियाँ, ये सड़कें,ये मकां
बेजूबां हैं क्यूँ , लोग यहाँ
पूछता नहीं क्यूँ कोई किसी से
ये किसकी अरथी कांधों पे उठी है.....
आदमी ही आदमी का दुश्मन बना क्यों
बीच चौराहे पे क्यूँ ये गोली चली है
रात मेरी तो कट जायेगी हकी़र सजदे में
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है......!?!