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प्रेम / ओ पवित्र नदी / केशव
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भाषा सुनती नहीं
सिर्फ बोलती है
प्रेम को भी
तर्क के तराजू में
तोलती है
हद-से हद
स्मृति के तहखाने
खोलती है
प्रेम नहीं है
भाषा को एक खूबसूरत फूल की तरह
उम्र की सलाएयों पर
बुनना
प्रेम नहीं है
भाषा को
आईने की तरह
अपने-अपने अक्सों के लिए
चुनना
प्रेम है
मौसम की घाटी में
एक पक्षी की उड़ान
या नदी का
कोमल सीत्कार
या उंगलियों के पोरों से
उमड़ती पुकार