भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरिजू की आरती बनी / आरती

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:44, 9 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKBhaktiKavya |रचनाकार= }}<poem> हरिजू की आरती बनी।<BR> अति विचित्र रचना रचि ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार:                  


हरिजू की आरती बनी।

अति विचित्र रचना रचि राखी, परति न गिरा गनी॥ हरिजू ..


कच्छप अध आसन अनूप अति, डांडी सहस फनी।

महि सराव, सप्त सागर घृत-बाती सैल घनी। हरिजू ..


रवि-शशि ज्योति जगत परिपूरन, हरति तिमिर रजनी।

उड़त फुल उड्डन नभ अन्तर, अंजन घटा घनी॥ हरिजू ..


नारदादि, सनकादि प्रजापति, सुर-नर-असुर अनी।

काल-कर्म-गुनओर-अंत नहिं, प्रभु-इच्छा रजनी॥ हरिजू ..


यह प्रताप दीपक सुनिरंतर, लोक सकल भजनी।

सूरदास सब प्रकट ध्यान में अति विचित्र सजनी॥