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दोपहर का अख़बार / कैलाश वाजपेयी

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सड़क पर बस
कुचला एक आदमी रक्तस्नात है
मैं गुज़र रहा हूँ
हालाँकि मैं हूँ रफ़्तार में
तब भी मुझे देर हो गई है
बिल भरने की यह अंतिम तारीख़ है
मैं देख सकता हूँ ख़ून को
जो जून की दोपहर में,ज़्यादा लाल
दिखता है
मैं अगर बिल नहीं भरूँगा
मरूँगा तब,जुर्माना देता
फिरूँगा
रफ़्तार जड़ कर जाती है
आगे रोक है
‘दोपहर की ख़बर’ के लिए
आ जाता है एक छोकरा
ठहरी हुई गाड़ी के शीशे तक
मैं बड़बड़ाता हूँ
‘कुछ नहीं होता अख़बार में
मैं नहीं पढ़ता
अख़बार’
वह सुनता नहीं सिर्फ़ मुग्ध हेरे चला जाता है
उस चटख़ चिड़िया को
जो डोर से बंधी लटकी है
मेरी कार में
मुझमें कुछ होता है,उस बच्चे को
               माँ भारती के झुलसे बेहाल
उस साँवले खिलौने को देख कर.
यह चिड़िया लेगा?
मैं डोर तोड़ कर
              मिट्टी की वह चिड़िया
दे देने की कोशिश करता हूँ उसे
"आज नहीं कल
कल आना इसी वक़्त
कल एक सुर्ख़ ख़बर होगी
अख़बार में."