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नहीं देख पाऊंगा यह सच / रंजीत वर्मा

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दिल्ली की सड़कें कितनी वीरान है
यह मैंने जाना
तुम्हारे जाने के बाद

तुम जहां नहीं होती
वहां छांह नहीं होती
और उफ
यह धूप होती है कितनी तेज
कोई आसरा नहीं होता
हर आहट हो जाती है दूर

प्रेम की तड़प खत्म नहीं हुई हमारी
इस उत्तर आधुनिक युग में भी
क्या मैं उम्मीद करूं कि
हवाओं के झोंकों से भरा दरख्त बनकर
तुम आओगी मेरे जीवन में
गिरोगी मेरी आत्मा पर
ठंडा बहता झरना बनकर
तुम्हारी पलकें झुकेंगी
और छुपा लेंगी मुझे अंदर कहीं

बिखरे केश में ढंक जाता है तुम्हारा चेहरा
चांद और बादल का ऐसा
अलौकिक दृश्य
एक तुम्ही रच सकती हो
एस धरती पर

मुझे पता है
मैं खत्म हो जाऊंगा एक दिन
तब भी नहीं देख पाऊंगा यह सच।