Last modified on 22 मार्च 2009, at 20:41

अमरता की खोज / अरुण कमल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:41, 22 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कमल }} Category:कविता <Poem> अमरता की खोज में एक कवि ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अमरता की खोज में एक कवि अपनी गली से चला
और चलते-चलते आलोचक की चौखट पर पहुँचा
आलोचक अंकुरित चना और मुनक्का खा रहा था
बोला, ठीक है, सो जाओ सोफ़े पर देखेंगे।

रात में जब कवि को अभ्यासवश खाँसी आई तो आलोचक हड़बड़ा कर उठा,
'चुप, चुप कहीं अकादमी अध्यक्ष न सुन लें'
तब कवि ने सोचा लगता है आलोचक से बड़ा अकादमी अध्यक्ष है
उसी से मिलूँ।

अध्यक्ष एक फ़िल्मी गीतकार की ग़ज़ल गुनगुनाता गदगद था
उसने कवि को दुशाला उढ़ाया, यहीं जम जाओ।
रात में इस बार फिर कवि को खाँसी आ गई, सो अध्यक्ष दौड़ा-दौड़ा आय,
'चुप,चुप कहीं मंत्री न सुन ले'
तब कवि ने सोचा, लगता है मंत्री अकादमी अध्यक्ष से ऊपर है, चलें वहीं।

मंत्री शीर्षासन में व्यस्त था
उसने कवि को तत्काल वृत्ति और बंगला आबंटित किया और कपालभाँति करने लगा।
किन्तु कालगति ने इस बार फिर कवि को खाँसी ला दी
और मंत्री अंगरक्षकों के साथ भागा-भागा आया
'चुप,चुप। कहीं प्रधान जी न सुन लें।'
और तब कवि ने सीधे प्रधान से मिलने की ठानी

प्रधानमंत्री अभी-अभी अमरीका से लौटा नीम का दतवन कर रहा था
उसने फ़ौरन कवि को राजकवि घोषित किया
और अतिथि-कक्ष में ठहराया।
कवि ने तय किया आज वह खाँसेगा नहीं, अब वह कभी नहीं खाँसेगा
उसने अपने को सात-सात कम्बलों में लपेटा
पर रात हुई, चांद उगा, पुरवा बही और दबाते-दबाते भी कवि को
ज़ोर से खाँसी उखड़ी जैसे कोई उसे भीतर से कोड़ रहा हो
और प्रधानमंत्री मय लावलश्कर भागाभागाभागा आया
'हे कविराज, मेरा कुछ तो ख़याल करो, जनता सुन लेगी तो क्या होगा'।

और तब कवि को लगा
चलो फिर वहीं उसी गली के टूटे घर में
यह जीवन जो नरक है वही अमरता है।