एक औरत का कैनवास / सुकेश साहनी
नशे में चूर
लौटता है पति,
खाली पेट शराब खा न जाए उसे
इस डर से
रोकर–गिड़गिड़ाकर
खिलाती हो उसे
खा–पीकर जाग जाता है उसका मर्द
देह सौंप देती हो...नि:शब्द!
डरती हो–
कहीं गुड्डो जाग न जाए
सुबह फिर उसे जाना है स्कूल।
इस तिमंजिले मकान के नल में
पानी भी तो रात के तीन बजे ही
चढ़ता है
तुम्हें धोने हैं कपड़े–
सास के, ससुर के, देवर के, ननद के,
पिता के, बच्चों के,
और
अगर समय बचा तो
अपने भी
कपड़े धोते...धोते...धोते
सुनाई देती है
दूध वाले की आवज़
‘‘मम्मी!’’....‘‘अरे बहू!’’....ओ भाभी!’’....सुनती हो!!’’
की चीख़-पुकार।
तन–मन से
सबके लिए खटती हुई तुम
सोती कब हो?
सास की शिकायत पर
पति भुनभुनाता है
कमीज का बटन टूटा होने पर
देवर पिनपिनाता है
ननद छिड़कती है
कटे पर नमक
पति फेंककर मारता है थाली
कट जाता है होंठ
सहम जाती है गुड्डो
रो पड़ता है राजू!
साड़ी के पल्लू से–
जख्मों को छिपाती
हँस–हँसकर
बच्चों को बहलाती
लोरियाँ गा–गाकर
उनको सुलाती
अगले ही क्षण, फिर से
खुशी–खुशी
रोटियाँ थापती
और
दौड़–दौड़कर
घर–भर को
खाना खिलाती तुम
खाती कब हो?
रोगी पति
बात–बात पर चिल्लाता है
बेटा राजू
पास नहीं आता है
बेटे की पत्नी
मालकिन–सी बरसती है
अपनी जर्जर काया को
घसीटते हुए
ममता भरे हाथों से
घर भर में पोछा लगाती
बर्तन मांजती
नातियों को खिलाती–पिलाती
पति,बेटे,बहू
और
नातियों के लिए
जीती तुम
अपने लिए
जीती कब हो?