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कवि वही / जगदीश गुप्त

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कवि वही जो अकथनीय कहे
किंतु सारी मुखरता के बीच मौन रहे
शब्द गूँथे स्वयं अपने गूथने पर
कभी रीझे कभी खीझे कभी बोल सहे
कवि वही जो अकथनीय कहे

सिद्ध हो जिसको मनोमय मुक्ति का सौंदर्य साधन
भाव झंकृति रूप जिसका अलंकृति जिसका प्रसाधन
सिर्फ़ अपना ही नहीं सबका ताप जिसे दहे
रूष्ट हो तो जगा दे आक्रोश नभ का
द्रवित हो तो सृष्टि सारी साथ-साथ बहे।

शक्ति के संचार से
या अर्थ के संभार से
प्रबल झंझावात से
या घात-प्रत्याघात से
जहां थकने लगे वाणी स्वयं हाथ गहे।

शांति मन में क्रांति का संकल्प लेकर टिकी हो
कहीं भी गिरवी न हो ईमान जिसका
कहीं भी प्रज्ञा न जिसकी बिकी हो
जो निरंतर नयी रचना-धर्मिता से रहे पूरित
लेखनी जिसकी कलुष में डूब कर भी
विशद उज्जवल कीर्ति लाभ लहे
कवि वही जो अकथनीय कहे