भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रंग / वंशी माहेश्वरी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:26, 31 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वंशी माहेश्वरी |संग्रह= }} <Poem> चढ़ते-उतरते हैं रंग ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चढ़ते-उतरते हैं रंग
रंग उतरते-चढ़ते हैं
कितने ही रंग कर जाते हैं रंगीन
जीवन मटमैला

अदृश्य सीढ़ी हैं रंग
आने-जाने वाले दृश्य के बाहर
दृश्य का सिंहावलोकन विचार

आकाश की टपकती छत से
कितने रंग बिखरे हैं
कितने ही बिखरने को हैं

जिन हाथों में ब्रश हैं
आधे-अधूरे चित्र चित्रित जिनमें
वे कैनवॉस छिन गए

रंगों से खेलते चले आ रहे हैं वर्षों से
फाग अब फ़ाल्गुनी उत्सव भर नहीं है
रंगों टोलियाँ
काँपते-छूजते
अचानक में
आवाजाही करती है

देश का रंग
उतर रहा है लगातार बेहद शान्त।