Last modified on 31 मार्च 2009, at 18:31

हम मांस के थरथराते झंडे हें / अंशु मालवीय

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:31, 31 मार्च 2009 का अवतरण


मणिपुर-जुलाई 2004, सेना ने मनोरमा नाम की महिला के साथ बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी। मनोरमा के लिए न्याय की मांग करती महिलाओं ने निर्वस्त्र हो प्रदर्शन किया। उस प्रदर्शन की हिस्सेदारी के लिए यह कविता



देखो हमें
हम मांस के थरथराते झंडे हैं
देखो बीच चौराहे पर बरहना हैं हमारी वही छातियाँ
जिनके बीच
तिरंगा गाड़ देना चाहते थे तुम
देखो सरेराह उघडी हुई
ये वही जांघे हैं
जिन पर संगीनों से
अपनी मर्दानगी का राष्ट्रगीत
लिखते आए हो तुम
हम निकल आयें हैं
यूं ही सड़क पर
जैसे बूटों से कुचली हुई
मणिपुर की क्षुब्ध तलजती धरती

अपने राष्ट्र से कहो घूरे हमें
अपनी राजनीति से कहो हमारा बलात्कार करे
अपनी सभ्यता से कहो
हमारा सिर कुचल कर जंगल में फैंक दे हमें
अपनी फौज से कहो
हमारी छोटी उंगलियाँ काटकर
स्टार की जगह लगाले वर्दी पर
हम नंगी निकल आयीं हैं सड़क पर
अपने सवालों की तरह नंगी
हम नंगी निकल आयीं हैं सड़क पर
जैसे कड़कती है बिजली आसमान में
बिल्कुल नंगी.......
हम मांस के थरथराते झंडे हें