भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पाठक की निगाह / आशुतोष दुबे

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:05, 31 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आशुतोष दुबे }} <poem> कभी आप लिखते हैं कोई ख़त कभी नि...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी आप लिखते हैं कोई ख़त
कभी निजी डायरी
कभी महीने के खर्च का हिसाब
कभी-कभी कविताएँ भी

कभी आपको लिखना पड़ता है
स्पष्टीकरण
कभी आप बनाते हैं
किसी क्षमा-पत्र का मसौदा
फिर अचानक एक दिन पढ़ने पर
अपनी लिखी चिट्ठी
किसी भूल की तरह लगती है
खर्च का हिसाब भयभीत कर देता है
कविताएँ घोर असंतोष से भर देती हैं
निजी प्रसंगों पर निजी टिप्पणियाँ
व्याकुल कर देती हैं भीतर ही भीतर
स्पष्टीकरण के कच्चे मसौदे
भर देते हैं अपराध-बोध और ग्लानि भाव से

फिर आप उधेड़ने लगते हैं
अपने बुने हुए को
और लच्छियों को उलझने से बचाना
एक मुश्किल काम होता है

देखा आपने,
चीज़ें किस तरह बदलती हैं
पाठक की निगाह से देखने पर।