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छंद / राधावल्लभ त्रिपाठी
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छंद के बंध टूट जाने पर
यति और लय के भंग हो जाने पर
जो कुछ जो कुछ रचा गया
वह भी वह भी हुआ छंद ही।
उघड़े रस्ते नए-नए
पद्धतियाँ दिखीं और भी कई-कई
संग-संग
चल पड़े छंद
लंबी यात्रा में पाथेय बने।
जो सत्त्व छंद में ढाला था
मन के रजःपटल को
दूर वही करता आया है
वाणी की धार कुल्हाड़ी की
देती रही विदार
तमस का काला परदा।