भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सेल्फ़ पोर्ट्रेट / वसंत त्रिपाठी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:12, 5 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: </poem> {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वसंत त्रिपाठी }} <Poem> यह जो कटा-फटा-सा कच्चा-कच...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

</poem>


यह जो कटा-फटा-सा
कच्चा-कच्चा और मासूम चेहरा है
उसे ज़माने की भट्ठी ने
ख़ूब-ख़ूब तपाया है

केवल आरामशीन नहीं चली
लेकिन हड्डियों और दिल को
ठंड ने अमरूद की फाँकों-सा चीर दिया है

असमय इस चेहरे से रुलाई फूटती है
दरअसल ट्रेन की खिड़की-सा हो गया है चेहरा
जिसके भीतर से आँखें
दृश्यों को छूते हुए निर्लिप्त गुज़र जाती हैं

बहुत रात तक
चांदनी से बतियाती जुबान
एक झटके से लहूलुहान हो जाती है
जब उसे याद आती है
ध्वस्त खेतों की सिसकती फ़सलें
नारियल और ताड़ के गहरे रंग के छितरे वृक्ष
समुद्र की रेतीली तटों पर सूखी मछलियों के ढेर

नमक की डली इसकी नसों में है
घाटियों के काले पत्थरों से निर्मित हैं इसके होंठ

दुनिया का कोई रंग
इस चित्रा का असल बयान नहीं कर सकता

यदि इसमें भरना ही है कोई रंग
जो दिखाए इसकी सच्चाई
तो गुज़रे ज़माने में ध्वस्त हुई किसी मीनार
या अधबनी किसी इमारत की धूल ले आओ
इन भरी-भरी आँखों में निचोड़ दो असली रक्त
तम्बाखू से काले हुए होंठ और मटमैले दाँतों के लिए
बुलाओ गुम हो चुकी समुद्री मछली को
अंधेरी रातों से
वह आएगी और खिलखिला जाएगा यह चित्र
बिल्कुल असल की तरह

लेकिन मेरे चित्रकार,
फिलहाल इस चेहरे को
मुल्तवी कर दो अगली शताब्दी के लिए!