चोट दिल को आहे-रसा पैदा हो / नासिख़
चोट दिल को आहे-रसा पैदा हो
सदमा शीशे को पहुँचे तो सदा पैदा हो।
कुश्ता-ए-तेगे-जुदाई हूँ, यकीं हैं मुझको
अज्ब से अज्ब कलायत को जुदा पैदा हो।
हम हैं, बीमारे-मुहब्बत ये दुआ मांगते हैं
मिस्ले-अक्सीर न दुनिया में दवा पैदा हो।
कह रहा है जरसे-क्लब बा-आवाज़े-बलंद
गुम हो रह बर तो अभी राहे-ख़ुदा पैदा हो।
किस को पहुँचा नहीं ऎ जान, तेरा फ़ैज़े-क़दम
संग पर क्यों न निशाने-कफ़े-पा पैदा हो।
मिल गया ख़ाक में पिस-पिस के हसीनों, पर मैं
कब्र पर बाएँ कोई चीज़, हिना पैदा हो।
अश्क थम जाएँ जो फ़ुरक़त में तो आहें निकलें
ख़ुश्क हो जाए जो पानी तो हवा पैदा हो।
याँ कुछ असबाब के हम बंदे ही मुहताज नहीं
न ज़वाँ हो तो कहाँ नामे ख़दा पैदा हो।
गुल तुझे देख के गुलशन में कहे, उम्र-दराज़!
शाख़ के बदले वही दस्ते-दुआ पैदा हो।
न सरे-ज़ुल्फ़ मिला, बल-बे दराज़ी तेरी
रिश्ताएँ-तूले अमल का भी सिरा पैदा हो।
अभी ख़ुर्शीद जो छुप जाए, तो ज़र्रात कहाँ
तू ही पिनहाँ हो तो फिर कौन भला पैदा हो।
क्या मुबारक हो मेरा दश्ते-जुनूँ ऎ ’नासिख़’
बेज़ा-ए-बूम भी टूटे तो हुमा पैदा हो।
शब्दार्थ =
आहे रसा = प्रभावपूर्ण आह
सदमा = आघात
कुश्ता-ए-तेगे-जुदाई = वियोग की तलवार का मारा हुआ
अज्ब = अंग
मिस्ले-अक्सीर = अचूक दवा की तरह
बा आवाज़े-बलंद = बुलन्द आवाज़ में दिल