भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लगने जैसा / नईम

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:48, 13 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम }} <poem> लगने जैसा लिखा नहीं कुछ बहुत दिनों से क...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लगने जैसा
लिखा नहीं कुछ
बहुत दिनों से

कर न सका स्वायत्त ठीक से कभी
स्वयं की ही भाषा को,
मूर्त न कर पाया अनुभूते क्षण की -
आशा अभिलाषा को
कोरे थान सफेद खादी के
पड़े रह गये धुले नांद में,
रंगने जैसा
रंगा नहीं कुछ
बहुत दिनों से

अपराधी होकर मुतलक मैं,
रहा नहीं दो दिन कारा में
जीवन जिया न हमने औघट -
या गहरे धंसकर धारा में
मरने जैसा
मरा नहीं कुछ
बहुत दिनों से

बदल गये हैं अब मुहावरे -
जीवन के ही नहीं मौत के
अर्थ नहीं रह गये थे वही अब
पति, पत्नी के याकि सौत के
रखे रह गए सब मनसूबे -
लिखने जैसा -
लगा नहीं कुछ बहुत दिनों से