कवि: गुलज़ार
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
िज़ंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ािफला साथ और सफर तन्हा
अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस कदर तन्हा
रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई िकधर तन्हा
िदन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा
हमने दरवाज़े तक तो देखा था
िफर न जाने गए िकधर तन्हा