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माला / नीलेश रघुवंशी

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मैं माला फेरन चाहती हूँ
सामने दिख रहे झाड़ के नाम की...
नदी के नाम की जिसका पानी पिया...
उस आम आदमी के नाम की
जिसके हिस्से की जगह
कम होती जा रही है दिन-ब-दिन...
खेत-खलिहान तक सड़क को ले जाती
मुरम और गिट्टी के नाम की...
आकाश और तारों के नाम की...
छिपने-छिपने को है चांद
ये आख़िरी मोती
लो तुम्हारी हँसी याद आई
मोती की जगह
तुम्हारे उजले आधे टूटे दाँत ने ले ली
न चाहते हुए भी
फेरती हूँ
आज भी माला तुम्हारे नाम की...